Thursday, March 26, 2009

कटी पतंग को उठाना था बुरा शकुन


फिजा में डोलती बेलगाम डोर थामने वालों को आसमान की ऊंचाइयां बख्शने वाली पतंग अपने 2000 साल से ज्यादा पुराने इतिहास में अनेक मान्यताओं, अंधविश्वासों और अनूठे प्रयोगों का आधार भी रही है।
अपने पंखों पर विजय और वर्चस्व की उम्मीदों का बोझ लेकर उड़ती पतंग ने अपने अलग-अलग रूपों में दुनिया को न सिर्फ एक रोमांचक खेल का जरिया दिया बल्कि एक शौक के रूप में यह विश्व की विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों में रच-बस गई।
पतंग भारत समेत दुनिया के अनेक देशों में एक शौक का माध्यम बनने के साथ-साथ उम्मीदों, आकांक्षाओं और मान्यताओं को पंख भी देती है।
माना जाता है कि पतंग का आविष्कार ईसा पूर्व तीसरी सदी में चीन में हुआ था। दुनिया की पहली पतंग दार्शनिक मो दी ने बनाई थी। इस तरह पतंग का इतिहास करीब 2300 साल पुराना है।
पतंग का अंधविश्वासों में भी खासा अहम स्थान है। चीन में किंग राजवंश के शासन के दौरान पतंग उड़ाकर उसे लावारिस छोड़ देने को अपशकुन माना जाता था। साथ ही किसी की कटी पतंग को उठाना भी बुरे शकुन के रूप में देखा जाता था।
पतंग धार्मिक आस्थाओं के प्रदर्शन का जरिया भी रह चुकी है। थाइलैंड में हर राजा की अपनी विशेष पतंग होती थी जिसे जाड़े के मौसम में भिक्षु और पुरोहित देश में शांति और खुशहाली की आशा में उड़ाते थे।
थाइलैंड के लोग भी अपनी प्रार्थनाओं को भगवान तक पहुंचाने के लिए वर्षा ऋतु में पतंग उड़ाते थे। दुनिया के कई देशों में 27 नवंबर को फ्लाई ए काइट डे के रूप में मनाया जाता है।
यूरोप में पतंग उड़ाने का चलन नाविक मार्को पोलो के आने के बाद शुरू हुआ। मार्को पूरब की यात्रा के दौरान हासिल हुए पतंग के हुनर को यूरोप में लाया। माना जाता है कि उसके बाद यूरोप के लोगों और फिर अमेरिका के बाशिन्दों ने वैज्ञानिक और सैन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पतंग का इस्तेमाल किया।
ब्रिटेन के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डाक्टर नीडहम ने अपनी किताब ए हिस्ट्री आफ चाइनाज साइंस एण्ड टेक्नोलोजी में पतंग को चीन द्वारा यूरोप को दी गई एक प्रमुख वैज्ञानिक खोज बताया है। यह कहा जा सकता है कि पतंग को देखकर मन में उपजी उड़ने की लालसा ने ही इंसान को विमान की ईजाद करने की प्रेरणा दी होगी।
पतंग उड़ाने का शौक चीन, कोरिया और थाइलैंड समेत दुनिया के कई अन्य हिस्सों से होकर भारत में पहुंचा। देखते ही देखते यह शौक भारत में एक शगल बनकर यहां की संस्कृति और सभ्यता में रच-बस गया। फुरसत के लम्हों की साथी बनी पतंग को खुले आसमान में उड़ाने का शाच्क बच्चों से लेकर बूढ़ों तक के सिर चढ़कर बोलने लगा।
राजस्थान में पर्यटन विभाग की ओर से हर साल तीन दिवसीय पतंगबाजी प्रतियोगिता होती है जिसमें नामी-गिरामी पतंगबाज हिस्सा लेते हैं।
राज्य पर्यटन आयुक्त कार्यालय के सूत्रों के मुताबिक राज्य में हर साल मकर संक्रांति के दिन परंपरागत रूप से पतंगबाजी प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है जिसमें सूबे के पूर्व दरबारी पतंगबाजों के परिवार के लोगों के साथ-साथ विदेशी पतंगबाज भी हिस्सा लेते हैं।
इसके अलावा दिल्ली और लखनऊ में भी पतंगबाजी के प्रति खासा आकर्षण है। दीपावली के अगले दिन जमघट के दौरान तो आसमान में पतंगों की कलाबाजियां देखते ही बनती हैं।
हालांकि आज की भागमभाग भरी जिंदगी में फुरसत के लम्हों की कमी ने पतंग को परवाज देने की ख्वाहिश के मौके काफी कम कर दिए हैं लेकिन अतीत पर निगाह डालें तो हमारे जेहन में पतंग आकांक्षाओं और उम्मीदों की हवा में तैरती जरूर नजर आएगी।

1 comment: